अकबर इलाहाबादी शायरी | Akbar Allahawadi Shayari in Hindi

Best Hindi Shayari of Akbar Allahawadi अकबर इलाहाबादी के शेर। पेशे से जज akbar allahabadi ki shayari का अंदाज़ थोड़ा मजाकिया था, वो अपने शब्दों की कलाकारी को कुछ इस तरह लिखते थे की पड़ने और सुनने वालों के दिल को छो जाती थी। अकबर अल्लहवादी की शायरी. उनका जनम इलाहाबाद के बारे में सं 1846  में हुआ था। अपने हास्य और रोमांटिक शायरी गजलों और रचनाओं के कारण वो अपने समय के प्रसिद्ध व्यक्तित्व थे . आईये पढ़तें हैं उनके द्वारा लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ ।

Akbar Allahawadi Shayari in Hindi 

खुदा महफूज रखे आपको तीनों बलाओं से
वकीलों से, हकीमों से हसीनों की निगाहों से

 

अकबर इलाहाबादी की शायरी


 अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा


सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है 
जीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है 


हादसे अपने तरीक़ों से गुज़रते ही रहे 
क्यों हुआ ऐसा ये हम तहक़ीक़ करते ही रहे 


ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल 
इंसाँ करे अगर न तिरी चाह क्या करे 

 

akbar allahawadi shayari in hindi

लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए 
कह दो बे इस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं 


लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है 
क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है 


अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा 
जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा 

 

अकबर इलाहाबादी के शेर


उन की आँखों की लगावट से हज़र ऐ 'अकबर' 
दीन से करती है दिल को यही ग़म्माज़ जुदा 


मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ 
नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा 

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बताऊँ आप को मरने के बाद क्या होगा 
पोलाओ खाएँगे अहबाब फ़ातिहा होगा 


दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त 
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते 


हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता 

 

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आई होगी किसी को हिज्र में मौत 
मुझ को तो नींद भी नहीं आती 


हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है 
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है 


मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में 
शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार न हो 

 

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रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में 
कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में 


क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ 
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ 


खींचो न कमानों को न तलवार निकालो 
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो 


सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे 
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे 

 

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हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं 
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं 


ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन 
सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर 


समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं 
असर हो सुनने वाले पर बलाग़त इस को कहते हैं 

 

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एक काफ़िर पर तबीअत आ गई 
पारसाई पर भी आफ़त आ गई 


जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें 
मगर सीने का फ़ित्ना रुक नहीं सकता उभरने से 


निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं ज़माने की 
कहीं छुपता है 'अकबर' फूल पत्तों में निहाँ हो कर 


हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना 
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना 

 

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अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से 
लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से 


निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं ज़माने की 
कहीं छुपता है 'अकबर' फूल पत्तों में निहाँ हो कर 


वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने 
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला 


जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर 
हँस के कहने लगी और आप को आता क्या है 


सय्यद की सरगुज़िश्त को हाली से पूछिए 
ग़ाज़ी मियाँ का हाल डफ़ाली से पूछिए 


वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ 
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा 


इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है


 अकबर इलाहाबादी के शेर

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पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा 
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए 


साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया 
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए 


खो गई हिन्द की फ़िरदौस-निशानी 'अकबर' 
काश हो जाए कोई मिल्टन-ए-सानी पैदा 


क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं 
इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो 


पर्दे का मुख़ालिफ़ जो सुना बोल उठीं बेगम 
अल्लाह की मार इस पे अलीगढ़ के हवाले 


दिला दे हम को भी साहब से लोएलटी का परवाना 
क़यामत तक रहे सय्यद तिरे आनर का अफ़्साना 


फ़क़ीरों के घरों में लुत्फ़ की रातें भी आती हैं 
ज़ियारत के लिए अक्सर मुसम्मातें भी आती हैं 


रहता है इबादत में हमें मौत का खटका 
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद 


बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है 
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता 

 

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नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें 
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं 


जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी 
मुल्ला की दौड़ मस्जिद 'अकबर' की दौड़ भट्टी 


बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद 
मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है 


आह जो दिल से निकाली जाएगी 
क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी 


तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर 
जल्वा बुतों का देख के नीयत बदल गई 

 

 अकबर इलाहाबादी की शायरी 

akbar allahabadi ki shayari


लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है 
नहीं नहीं पे न जा ये हया की ड्यूटी है 


तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की 
दूध तो डिब्बे का है तालीम है सरकार की 


इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं


ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर' 
यही वो दर है कि ज़िल्लत नहीं सवाल के बा'द 


तअल्लुक़ आशिक़ ओ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था 
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीवी मियाँ हो कर 


सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर 
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले 

 

अकबर इलाहाबादी शायरी


अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ 
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ 


हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से 
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है 


यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक 
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं 


क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर 
आरज़ू वो है जो सीने में रहे नाज़ के साथ 


इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम 
वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया 

 

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दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ 
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ


बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें 
बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें 


शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें 
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें 


जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं 
यही लड़के मिटाते हैं जवानी को जवाँ हो कर 

 

अकबर इलाहाबादी की  शेरो शायरी


बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है 
मैं चल दिया ये कह के कि आदाब अर्ज़ है 


मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से 
हँस के तुम से बोल तो लेते हैं और हम क्या करें 

 

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उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का 
हमीं दिन-रात अगर तड़पे तो फिर इस में मज़ा क्या है 


लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए 
कह दो बे इस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं 


आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम 
हम तो ए.बी में रहे अग़्यार बी.ए हो गए 


हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा 
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर 


फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं 
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं 


ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता 
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता 

 

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किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल 
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते 


शैख़ जी घर से न निकले और मुझ से कह दिया 
आप बी-ए पास हैं और बंदा बीबी पास है 


ख़ुश-नसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा 
सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है शौहर के सिवा 


कुछ तर्ज़-ए-सितम भी है कुछ अंदाज़-ए-वफ़ा भी 
खुलता नहीं हाल उन की तबीअत का ज़रा भी 


दम लबों पर था दिल-ए-ज़ार के घबराने से 
आ गई जान में जान आप के आ जाने से 

 

अकबर इलाहाबादी shayari


मस्जिद का है ख़याल न परवा-ए-चर्च है 
जो कुछ है अब तो कॉलेज-ओ-टीचर में ख़र्च है 


सब हो चुके हैं उस बुत-ए-काफ़िर-अदा के साथ 
रह जाएँगे रसूल ही बस अब ख़ुदा के साथ 

Akbar Allahawadi Shayari in Hindi
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