संत कबीर के दोहे अर्थ सहित ( Kabir ke dohe ) kabir ke dohe arth sahit संत कबीर जी के दोहे पढ़ने से पहले एक बार अपने मन से उनके चरणों शीश झुका लें ,आप बहुत सौभाग्यशाली है जो आपको संतो की वाणी पढ़ने का मौका मिल रहा है ,इस से आपके कितने पाप नष्ट हो जायेंगे ये आप भी नहीं जानते .
संत किसी जाती धर्म या सम्प्रदाय के लिए नहीं आते वो सारी दुनिया को ज्ञान का प्रकाश बाँटने आते है ,कितने लोग उनके ज्ञान से अपने जीवन को संबारते है . अगर आप रोज सच्चे मन से सिर्फ एक बार संत जी की वाणी पढ़ लेते है तो ,आपका मन पवित्र हो जायेगा , आपका मन आपको ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित करेगा.
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( Kabir ke dohe ) |
kabir ke dohe
kabir ji ke dohe - संत कबीर के दोहे अर्थ सहित
1. दोहा
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि अगर हमारे सामने गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे? संत कबीर जी कहते है जिस गुरु ने गोविन्द अर्थात ईश्वर से मिला ( दर्शन करवा ) दिया उस गुर के चरणों में नमन करता हूँ
2. दोहा
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||
अर्थ – इस धरती के बराबर कागज बनाऊं और सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर पानी को स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है,
3 . दोहा
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान |शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि मानव शरीर विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश दे कर आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा सस्ता समझो .
दोहा
3. ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये |औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि इंसान को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को अच्छी लगे। ऐसी वाणी दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े शांति का अनुभव होता है।
4. doha
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर |पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत ऊँचाई पर लगता है। इसी तरह कोई व्यक्ति खुद को बहुत बड़ा और महान समझता है तो उसकी महानता का कोई फायदा नहीं , यदि वो दूसरों के किसी काम न आ सके अर्थात दूसरों की मदद न करे तो ऐसे व्यक्ति जनम लेना व्यर्थ है
5. दोहा
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें |बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ||
अर्थ – कोई हमारी पीठ पीछे चुगली करता है तो हमारा पारा सातमे आसमान पर चढ़ जाता है संत कबीर दास जी कहते है हमें निंदक से घृणा नहीं करनी चाहिए उसको अपना मित्र बना कर अपने समीप रखना चाहिए ताकि वो हर समय हमारी निंदा कर सके ,क्यों की जो निंदक है वो बिना साबुन और पानी के भगत के सवभाव को निर्मल अर्थात शुद्ध कर देता है .
6. kabir ke dohe
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय |जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि मैं सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगा रहा लेकिन जब मैंने खुद अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई इंसान नहीं है।
7 . दोहा
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय |जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ||
अर्थ – इस दोहे में गूड रहस्य छुपा है .कबीर जी कहते है ,दुःख में सभी सुमिरन करते है ईश्वर को याद करते है लेकिन जब सुख आ जाये तो ईश्वर को भूल जाते है .कबीर दास जी यहाँ समझाते है मानव अगर तू सुख में भी उसी तरह सुमिरन करता रहे जैसे दुःख में करता था तो तुम्हे जीवन में कभी दुखों का सामना करना नहीं पड़ेगा
8. दोहा
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे |एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ||
अर्थ – कबीर जी अपने भगतों को सम्बोधित करते हुए कहते है के जिस तरह एक वर्तन बनाने वाला अपने पैरों तले मिटटी को मसलता है उसी तरह एक दिन मिटटी भी इंसान को रोंदती है . लेकिन आत्मा अजर अमर है वो अपने कर्मो को भोगती हुयी 84 लाख योनिओ में भटकती रहेगी . ये नश्वर शरीर मिटटी में मिल जाये उस से पहले जाग जाओ .अपनी मुक्ति का मार्ग ढून्ढ लो ताकि जनम मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाये
9. संत कबीर जी ka दोहा
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात |देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते है हे मानव तू नाशवान है तेरा शरीर पानी के बुलबुले की तरह कभी भी ख़तम हो सकता है ,जिस तरह सुबह के उजाले में अँधेरे का नामोनिशान मिट जाता है उसी तरह एक दिन तू भी मिट जायेगा
10. दोह
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये |दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ||
अर्थ –इस दोहे में कबीर जी समझाते है जीवन में सुख और दुःख चक्की के दो पाट की तरह है ,कभी दुःख आता है तो कभी सुख ,इनमे उलझ कर मानव अपना जीवन व्यर्थ कर रहा है ,हर कोई इन्ही दो पाटों में पीस रहा है , और कोई भी अर्धज्ञानि इनसे बच नहीं सकता
11- दोहा
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग |तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं जैसे तिल के अंदर तेल है, और चकमक पत्थर के अंदर आग है , उसी तरह तुम्हारा ईश्वर तुम्हारा रब तुम्हारे भीतर है अगर तू उसको पहचान सकता है तो पहचान ले अपने इसी जीवन काल में फिर न जाने कब मानव तन मिले न मिले.
13 दोहा
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप |जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां विनाश है और जहाँ क्षमा है बहीं ईश्वर का वास होता है
14- दोहा
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान |जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ||
अर्थ – कबीर दास अपनी वाणी में कहते है जिस तरह लोहार की धोंकनी स्वास तो लेती है लेकिन उसमे प्राण नहीं है उसी तरह जिस मानव के हृदय में ईश्वर की भगति रूपी प्रेम प्रकट नहीं हुआ उसे मुर्दे के समान समझना चाहिए , ऐसे व्यक्ति का स्वास लेना और न लेना एक समान है
15 - दोहा
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||
अर्थ –कबीर जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में समझाया है की कमल जल में खिलता है और चंदा आसमान में रहता है फिर भी जब चंद्र का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो दोनों की दुरी मिट जाती है ,ठीक उसी तरह मानव की सोच है ,मानव जिसके बारे में अधिक सोचता है वही उसके समीप है अगर उसके मन में संसार बसा हुआ है तो उसको संसार के दुःख सुख भोगने पड़ते है ,और यदि उसके मन में ईश्वर का बास है , हर समय ईश्वर के बारे में सोचता है तो उसको ईश्वर के साक्षात्कार का आनंद मिलता है.
16 - दोहा
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान |मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ||
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में भगतों को समझाते है जब कोई तलवार खरीदने जाता है तो वो म्यान का मोल नहीं करता वो व्यक्ति तलवार की मजबूती को परखता है ,ठीक वैसे ही जब हम किसी संत की शरण में जाएँ तो उसकी जात , कुल और गोत्र की बात नहीं पूछनी चाहिए उसके ज्ञान के बारे में पूछना चाहिए ,क्या उसको आतम ज्ञान है क्या उस संत को ईश्वर की प्राप्ति हो चुकी या नहीं .. क्या वो आपको ईश्वर का साक्षात्कार करवा सकता है या नहीं .
17 - दोहा
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए |यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते है ,अगर आपके मन में शीतलता बसती है आपकी वाणी मधुर है . और आपको ईश्वर का आनंद प्राप्त हो चूका है तो इस संसार में कोई भी आपका शत्रु नहीं हो सकता ,जिस व्यक्ति ने अपना अहंकार छोड़ दिया ,सारी कायनात उस पर दया करती है
18 - दोहा
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग |प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ||
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते है , मानव तूने अपने जीवन में कभी साधु संतो का संग नहीं किया ,कभी अच्छे व्यक्तिओं की संगती नहीं की तूने अपना जीवन व्यर्थ गवा दिया , तुझमे और उस जानवर में कोई अंतर् नहीं ,पशु भी भगति नहीं करते तूने भी नहीं की ,कबीर जी समझाते है मानव का जीवन ईश्वर की भगति और ईश्वर के प्रेम के बिना पशु के समान है
19 - दोहा
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब |पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है, जो काम कल करना है वो आज करो, और जो आज करना है वो अभी करो, क्यूंकि पलभर में प्रलय जो जाएगी फिर आप अपने काम कब करेंगे
20 - दोहा
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही वही सच्चा गुरु है और जो दूसरे की पीड़ा ना समझ सके ऐसे गुरु का होना न होना एक बराबर है
21 - दोहा
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
अर्थ – कबीर जी कहते है के वो लोग अकल के अंधे है जो गुरु को ईश्वर से भिन्न समझते है , अगर ईश्वर रूठ जाये तो गुरु बचा लेता है अगर गुरु रूठ जाये तो इस ब्रह्माण्ड में कोई भी आपको बचा नहीं सकता
22 - दोहा
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
अर्थ – इस दोहे में कबीर जी खुद से कहते है हे कबीर उठ जाग और ईश्वर के ध्यान में लीन हो जा अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा ,जब मोत की लम्बी नींद तुझे हमेशा के लिए सुला देगी
23 - दोहा
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते हैं कि चन्द्रमा में भी उतनी शीतलता नहीं है और बर्फ में भी उतनी शीतलता नहीं है जितनी शीतलता संत में होती है संत पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं.
24 - दोहा
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय |ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||
अर्थ – कबीर जी ने इस दोहे के माध्यम से समझाया है की अगर कोई बहुत बड़ी बड़ी धार्मिक किताबे पढ़ ले .,उनको मुख जुबानी रट भी ले तो भी वो ज्ञानी नहीं बन सकता . ज्ञानी वही बनता है जिसने ईश्वर की प्राप्ति के लिए ढाई अक्षर का सुमिरन कर लिया ,अक्सर लोग इस दोहे को सांसारिक प्रेम से जोड़ते है जो की सरासर गलत है संत ने कभी भी सांसारिक प्रेम की बात नहीं की वो तो सिर्फ ईश्वर के प्रेम की बात करते है .
25 - दोहा
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार |सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ||
अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में कहते है अगर तू तीरथ जाता है तो तुम्हे एक पुण्य मिलेगा तुम्हे पापों से मुक्ति मिल जाएगी , अगर तू संतो की शरण में जाता है तो तुझे धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ,रुपी चार फलों की प्राप्ति होती है ,और यदि तुझे पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु मिल जाये तो अनेकोनेक फलों की प्राप्ति हो जाती है ,कबीर जी कहते है हे मानव अब तू विचार कर ले तुझे कहाँ जाना है .
26 - दोहा
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||
अर्थ –संत कबीर दास जी कहते है है आज संसार में हर कोई दिखावे की भगति करता है तन से सभी साधु दिखने की कोशिश करते है ,लेकिन मन से कोई भी संत योगी बनना नहीं चाहता ,भगवा गेरुआ बस्त्र पहन के कोई संत नहीं बन जाता , संत वही है जिसके मन में योग समाया है जो मन से योगी है ,उसी को ईश्वर की प्राप्ति होती है
27 - दोह
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ||
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते है के ईश्वर की भगति रुपी प्रेम खेतों में नहीं उगता और न ही इसे दूकान से ख़रीदा जा सकता है , अगर किसी को ईश्वर की भगति चाहिए तो उसे अपने अहंकार को छोड़ कर सदगुरु के चरणों में शीश झुकाना होगा
28 - दोहा
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही |ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||
अर्थ – कबीर जी कहते है जिस घर में संतो की वाणी जपी नहीं जाती जिस घर में साधु संतो का आदर नहीं होता वो घर शमशान घाट के समान है वहां भूत और प्रेतों का बास हो जाता है
29 - दोहा
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
अर्थ – इस दोहे में कबीर जी ने साधु की परिभाषा व्यक्त की है कबीर जी कहते है साधु ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति के अवगुणो को ख़तम कर के सद्गुणों को बचा के रखे ,जिस तरह अनाज छांटने वाला छाज जिसमे अनाज तो बचा रहता है परन्तु थोथा नीचे गिर जाता है ,
30 - दोहा
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||
अर्थ – संत कहते है जब इंसान के मन में मै और मेरा की भावना होती है तो ईश्वर का दीदार नहीं होता ,और जब ईश्वर का साक्षात्कार हो जाये मन में ईश्वर रुपी ज्योति प्रकट हो गयी तब मै और मेरा रुपी अज्ञानता का पर्दा भी दूर हो जाता है
31 - दोहा
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए |मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ||
अर्थ – आपके नहाने और धोने से अगर मन का मैल दूर हो जाता है तो आपको रोज तीर्थों में जाकर स्नान करना चाहिए , अगर तीर्थों में स्नान करने पर भी आपके मन का मैल नहीं गया तो आपकी हालत उस मछली की तरह है जो सारी उम्र जल में रहती है लेकिन उसके शरीर की बदबू ख़तम नहीं होती
32 - दोहा
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय |लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ||
अर्थ – जिसने भी ईश्वर की भगति का प्रेम चखा है उसने अपने अहंकार को गुरु के चरणों में छोड़ा है परन्तु लोभ के कारण लोग अपने अहंकार को छोड़ना नहीं चाहते और ईश्वर की भगति भी प्राप्त करना चाहते है
33 - दोहा
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||
अर्थ – समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। हे मनुष्य अब क्यों पछता रहा है जब तेरी सारी उमर व्यर्थ में बीत गयी.
34 - दोहा
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ||
अर्थ – जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े कबीर दास जी इस दोहे में सच्चे साधुओं की संगती का वर्णन करते हुए कहते है ,जो सुख संत समाज और ईश्वर की भगति में है उतना आनंद बैकुंठ में भी नहीं है
35 - दोहा
शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान |तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ||
अर्थ – कबीर कहते है इंसान का सबसे बड़ा गहना उसका चरित्र है चरित्रवान परुष का चरित्र सब रत्नो से महंगा रतन है ,जिसने अपने चरित्र को गिरने नहीं दिया समझो उसके पास सारी दुनिया का खजाना है
36 - दोहा
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये |मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि हे प्रभु मुझे ज्यादा धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे केवल इतना चाहिए जिसमें मेरा परिवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहूं और मेरे घर से कोई मेहमान भूखा ना जाये।
37 - दोहा
माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए |हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि मक्खी मीठे के लालच में आपमें पंखो और मुख में गुड़ चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने का प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे दुःख होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और मृत्यु के समय में पछताता है.
38 - दोहा
ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार |हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते है ये संसार नाशवान है एक दिन इस संसार की हर एक चीज नष्ट हो जाएगी . हे मानव तू आतम ज्ञान रुपी धन इकट्ठा कर ले , वर्ना मृत्यु के बाद भी तुझे पछताना पड़ेगा
39 - दोहा
कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार |साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ||
अर्थ – कड़वे बचन बोलना अवगुण है इस से किसी कार्य का समाधान नहीं निकलता ,आत्मज्ञानी पुरुष के बचन ,पवित्र और अमृत के समान है
40 - दोहा
आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर |इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ||
अर्थ – संत कबीर जी कहते है जो भी इस संसार में जन्म लेता है उसको एक दिन मरना है , इस संसार से जाना है यही अटल सत्य है लेकिन .मृत्यु , मृत्यु में भी अन्तर होता है जो लोग अच्छे करम करते है उनको ईश्वर के दूत पालकी में लेकर जाते है और जो लोग बुरे कर्म करते है उनको यमदूत जंजीरों से बांध कर ले जाते है
41 - दोहा
ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय |सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के कलश में .शराब भरी हो, ऐसे लोगो की पुरे समाज में निंद्या होती है
42 - दोहा
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि रात को सोते हुए गँवा दिया और दिन खाते खाते गँवा दिया। मनुष्य इस जीवन को सांसारिक पदार्थों को इकट्ठा करने में गवा देता है ,जिस कार्य के लिए जन्म मिला था वो कार्य किया नहीं
43 - दोहा
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय |भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं कर पाते । भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, अहंकार सबका त्याग कर देता है .
44 - दोहा
कागा का को धन हरे, कोयल का को देय |मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ||
अर्थ – कोवा किसी का धन नहीं चुराता फिर भी लोग उसे पसंद नहीं करते . और कोयल किसी को धन नहीं देती परन्तु अपनी मधुर वाणी के कारण सबको भाति है । अगर आप मधुर वाणी बोलते है तो सारे जग को अपने वश में कर सकते हो
45 - दोहा
लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट |अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ||
अर्थ – कबीर जी कहते है जीवन रहते हुए ईश्वर की भगति कर ले ,ईश्वर ज्ञान रुपी रतन अपने भीतर इकट्ठा कर ले ,वर्ना मृत्यु के समय बहुत पछताना पड़ेगा
46 - दोहा
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
अर्थ –हिन्दू कहते है हम राम को पूजते है और मुस्लिम कहते है हम अल्ल्हा को मानते है ,इसी बात पर दोनों आपस में लड़ मार रहे है ,लेकिन असल बात को कोई नहीं समझता सत्य का ज्ञान किसी के पास नहीं
47 - दोहा
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
अर्थ – कबीर दास जी कहते है हे मन तू धैर्य रख अगर तू सही मार्ग पर है तो तुझे एक दिन मंजिल की प्राप्ति जरूर होगी , हर कार्य की और हर एक कार्य के फल की एक समय सीमा निर्धारित है जैसे माली चाहे कितने भी पानी से बगीचे को सींच ले लेकिन वसंत ऋतू आने पर ही फूल खिलते हैं।
48 - दोहा
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
अर्थ – कबीर जी कहते है आपको चाहिए हजारों जन्म मिल जाएँ फिर भी आपकी तृष्णा और इस संसार से मोह नहीं छूटेगा , पहले भी आप हजारों जन्म ले चुकें है लेकिन आपके शरीर तो मरते रहे लेकिन मन और माया को ना मार सके
49 - दोहा
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।
50 - दोहा
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते है किसी व्यक्ति को उसकी गरीबी या दरिद्रता देख कर उसका अपमान नहीं नहीं करना चाहिए , अगर कभी वो अपने क्रोध में आ गया तो आपको बहुत दुःख दे सकता है
51 - दोहा
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत |चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ||
अर्थ – जिस तरह चन्दन के वृक्ष से हजारों साप लिपट जाएँ फिर भी चन्दन का वृक्ष अपनी शीतलता नहीं छोड़ता उसी प्रकार सज्जन पुरुष चाहे जितने भी दुष्ट लोगो की संगती में आ जाये फिर भी अपनी सज्जनता नहीं छोड़ता
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